रासायनिक खाद महंगी, गुड़, गोमूत्र और बेसन से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं किसान

हलधर किसान। रासायनिक खाद से धान की खेती करना अब किसानों के लिए महंगा साबित हो रहा हैं। इससे बचने किसान प्राकृतिक खेती अपनाने लगे है। इंदौर के आसपास पारंपरिक खेती के साथ प्राकृतिक खेती का भी चलन बढ़ रहा है। कटाई और खेत की जुताई के बाद बारिश का इंतजार करना और नमी के बाद बीज बोना।फसल को खराब होने से बचाने के लिए कीटनाशक डालना, यह खेती करने का पारंपरिक तरीका है। इस दौरान कई रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है, जो फसल के साथ मिट्टी को खराब करता है। अब किसान इसमें बदलाव कर रहे हैं। इस संबंध में जीवामृत तैयार किया गया है, इसका उपयोग खेतों में नमी आने और बुआई के बाद भी कर सकते हैं। जीवामृत को गुड़, गोमूत्र, बेसन और मिट्टी से तैयार किया जाता है। इसके अलावा नीम की पत्ती और अन्य चीजों को मिलाकर कीटनाशक भी तैयार किए जा रहे हैं।बिरसा तहसील के जगला गांव में रहने वाले किसान गोवर्धन पटले ने बताया कि चार साल से धान से लेकर रबी की फसल प्राकृतिक खेती से ले रहे है।जिसमें गाय का गोबर, गोमूत्र,बेसन,गुड़ से तैयार प्राकृतिक खाद का उपयोग करते है।इस खाद का उपयोग खेती में करने पर प्रति एकड़ 10 से 12 क्विंटल धान का उत्पादन हो रहा है।अब प्राकृतिक खेती आदिवासी इलाकों के 25 गांवों में 120 किसान तक पहुंच गई है और 150 एकड़ में खेती होगी।इस खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।इसमें 10 लीटर गाय का गोबर,10 लीटर गोमूत्र,आधा किलो बेसन,200 ग्राम गुड़ और 10 लीटर पानी मिलाकर तैयार करके खेती में डालने के बाद पानी सिंचाई करना पड़ता है।इस खेती का प्रशिक्षण लेने उनके पास आसपास के गांव के किसान आते है जिन्हें निश्शुल्क प्रशिक्षण देते है।

रासायनिक खाद मिल रहा महंगा

किसानों ने बताया कि रासायनिक खाद से प्रति एकड़ 15 से 16 क्विंटल धान का उत्पादन हो रहा है।रासायनिक खाद डीएपी की एक बोरी 1250 रुपये और यूरिया की बोरी 268 रुपये में मिल रही है।लेकिन प्राकृतिक खेती सस्ते दाम पर हो जाती है।साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।प्राकृतिक खेती ग्राम जगला के अलावा सायल, बाहकल, पल्हेरा, टिंगीपुर, बांसीगखार, करौंदा, बहेरा, निक्कुम, जैरासी, सुरवाही सहित अन्य गांव शामिल है।

ऐसे तैयार होता जीवामृत
10 किग्रा गोबर, 10 लीटर गोमूत्र, 1 किलो गुड़, 1 किलो बेसन, आधा किलो मिट्टी को मिलाकर सात दिन तक रखा जाता है।
इस मिश्रण को हर घंटे घड़ी की दिशा में घुमाया जाता है, ताकि ऑक्सीजन का फ्लो बना रहे।
घड़ी की उल्टी दिशा में घुमाने से ऑक्सीजन का फ्लो कम रहता है। सात दिन के बाद मिश्रण को 100 किलो गोबर में मिलाकर जीवामृत तैयार किया जाता है। इस मिश्रण को बारिश के बाद खेतों में बढ़ी नमी या बीज बोने के बाद डाला जाता है, जो कि उच्च कोटी की फसल तैयार करने में फायदेमंद साबित होगा। इसके अलावा नीम, काड़ा और मीठी नीम से तैयार प्राकृतिक कीटनाशक का उपयोग भी बढ़ रहा है।

10 से ज्यादा कृषक मित्र किए तैयार
किसान दीपक दुबे ने बताया कि अब तक अलग-अलग गांव से हमने ऐसे 10 से ज्यादा कृषक मित्र तैयार किए हैं, जो अपने खेतों में प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। ये किसान अभी एक-एक बीघा में प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। शुरुआत में जरूर इसका एकदम से फायदा नहीं मिलेगा, लेकिन दो-तीन साल में जीवामृत से जमीन उपजाऊ हो जाएगी। इससे फसल की पैदावार बढ़ने के साथ गेहूं, मक्का, चना और सोयाबीन की गुणवत्ता भी बढ़ेगी।

प्राकृतिक उपज की कीमत दोगुना से ज्यादा मिलती है
किसान जगदीश रावलिया ने बताया कि हमारे पास 25 बीघा जमीन है। शुरुआत में एक बीघा में प्राकृतिक खेती तैयार करेंगे।हम मक्का, सोयाबीन, आलू, प्याज और गेहूं की खेती करते हैं। आमतौर पर 95 दिनों में फसल तैयार हो जाती है। फिर भी कई मौकों पर निराशा हाथ लगती है। फिलहाल सोयाबीन 4-7 हजार रुपए क्विंटल में बिकती है, लेकिन प्राकृतिक बीज की कीमत 8-10 हजार रुपए तक रहेगी।

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