हलधर किसान (रबी सीजन)। गेहूं भारतीय किसानों के लिए मुख्य फसल है और उनकी आर्थिक संतुलन की देखभाल करती है। हाल के समय में तापमान के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण गेहूं के उत्पादन पर असर पड़ा है। इस समस्या का समाधान ढूंढते हुए कृषि विश्वविद्यालयों के द्वारा गेहूं की नई.नई किस्में विकसित की जा रही है।
भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल ने गेहूं की दो नई किस्में . डीडीडब्ल्यू.55 और डीबीडब्ल्यू.316 विकसित की हैं, जो गर्म और कम पानी वाली जलवायु में भी अच्छी पैदावार देती हैं। ये किस्में पानी बचाने के साथ.साथ भारतीय किसानों के लिए वार्षिक उपज हानि को कम करने में मदद करेंगी।
इन किस्मों की खाशियत यह है कि यह अन्य किस्मों की तुलना में आधे पानी में तैयार हो जाएगी। इन्हें मध्य, उत्तर मध्य और पूर्वी भारत की जलवायु के अनुरूप डिजाइन किया गया है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात के लिए सबसे उपयुक्त किस्म है।
संस्थान के निदेशक डॉ. ज्ञानेंद्र सिंह ने बताया कि डीडीडब्ल्यू .55 को खासतौर पर भूजल बचाने के लिए तैयार किया गया है।
इसकी जड़ें अन्य किस्मों की तुलना में लंबी होती हैं। इसमें मिट्टी और वातावरण से नमी को अवशोषित करने की उच्च क्षमता होती है। दोनों किस्मों में गर्मी सहन करने की शक्ति भी अधिक होती है। मध्य भारत में तापमान उत्तरी राज्यों की तुलना में अधिक है।
यही कारण है कि दोनों किस्मों को वहां के वातावरण में आजमाया गया। प्रयोग सफल रहा है। इस प्रजाति को सामान्य बीमारियों से लडऩे में सक्षम बनाया गया है। किसानों का खर्च भी कम होगा।
डीडब्ल्यू 316 (करण प्रेमा) की बुआई कब एवं कैसे करें?
गेहूं की यह किस्म भारत के उत्तर.पूर्वी मैदानी क्षेत्र तथा देर से बुआई वाली सिंचित परिस्थिति के लिए उपयुक्त है।
इसकी बुआई 5 से 25 दिसंबर के दौरान की जा सकती है।
इसकी बुआई के लिए 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है।
किसान इसकी बुआई के दौरान पंक्तियों के बीच की दूरी 18 सेमी रखें।
देर से बुआई के अन्तर्गत 120:60:40 किलोग्राम एनपीके/ हेक्टेयर खाद का उपयोग करना चाहिए।
नाइट्रोजन की आधी मात्रा बिजाई के समय तथा शेष प्रथम नोड अवस्था (45 से 50 दिनों के बाद) देनी चाहिए।
इसके सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए किसानों को इसमें 4.6 सिंचाइयाँ 20.25 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए।
