हलधर किसान । महामहीम आदरणीय द्रौपदी मुर्मू जी के विचार भारतीय न्याय व्यवस्था के आती विचारणीय पहलू पर ध्यान आकर्षित करते हैं । किसी भी न्याय प्रणाली की असली परीक्षा यह है कि वह न्यायालय को सत्य की खोज करने में सक्षम बनाएं वही प्राचीन भारत इस परीक्षा में सबसे ऊपर रहा है।
प्राचीन महान न्यायवीद कत्यायन कहते हैं” साक्षी के बयान देरी से नहीं होना चाहिए क्योंकि देरी से याददाश्त कमजोर होती है और कल्पना शक्ति बढ़ती है वह देरी से बहुत बड़ी बुराई होती है गवाह कानून से दूर हो जाते हैं”। वर्तमान परिपेक्ष में देखा जाए न्यायालयों मे 4.7 करोड़ लंबित मामले लचर न्याय व्यवस्था को प्रदर्शित करते हैं. परिणाम स्वरुप असली गुनहगार कानून के हाथों से दूर हो जाता है और निर्दोष अपने समय और धन की हानि करते हुए न्याय रहित रह जाता है।
परिणाम स्वरुप वर्तमान में भारतीय आम जनता का न्याय व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है, जो कि वर्तमान की न्याय प्रणाली पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। भारत में न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धांत ब्रिटिश शासन से उत्पन्न नहीं हुआ है प्राचीन भारत में भी इसे पूरी तरह समझा और लागू किया गया था, कात्यायन एवं सभी विधि निर्माताओं ने न्यायाधीशों के स्वतंत्र और राजा से भी निडर होने के सर्वोच्च महत्व पर जोर दिया था. जो की वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे एक अपवाद स्वरूप प्रस्तुत होता है।
जब बात संविधान के अक्षरशः पालन की आती है, और निर्णय असत्य को प्रदर्शित करते है..तो प्राचीन महान न्यायवीद बृहस्पति ने कहा है “न्यायालय को केवल शास्त्र के अक्षर का पालन करके अपना निर्णय नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि निर्णय पूरी तरह से तर्क रहित है तो इसका परिणाम अन्याय ही होगा। अतः निर्णय निष्पक्षता एवं सतर्कता से होने चाहिए.”।
देखा जाता है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा वर्तमान में कई तरीकों से प्रशिक्षित करती है अतः कानूनी अध्ययन का आधार भी भारतीय न्याय शास्त्र का अध्ययन होना चाहिए प्रत्येक विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों में इसे विधि स्स्नातक की डिग्री के लिए अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करना चाहिए.
प्रत्येक न्यायालय को अपने नैतिक दायित्व धर्म, सत्य एवं न्याय का सम्मान करते हुए त्वरित एवं निष्पक्ष निर्णय की कार्यवाही पर जोर देना चाहिए तथा तारीख पर तारीख की संस्कृति को बदलना चाहिए.
प्रेषक
बरखा विवेक बड़जात्या जैन
बाकानेर, जिला धार
मध्य प्रदेश
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